मानव जननमानव जनन

मानव जनन (Human Reproduction):- मनुष्य एकलिंगी प्राणी है जिसमे नर जनन तंत्र अलग जीव मे तथा मादा जनन तंत्र अलग जीव में पाया जाता

नर जनन तंत्र नर यानि Male में पाया जाता है, न जनन तंत्र मे नर युग्मक यानि शुक्राणु का निर्माण होता है।

मादा जनन तंत्र मादा यानि female में पाया जाता है, मादा जनन तंत्र मे मादा युग्मक यानि अण्डाणु का निर्माण होता है।

मानव जनन तंत्र (Human Reproductive System)=

वे अंग जो मानव जनन में सहायक होते हैं, मानव जनन तंत्र कहलाते है। जिन्हें निम्नलिखित दो भागों में बाँटा गया है ।

1. प्राथमिक जनन अंग (primary Reproduction Organ)

नर → मुख्य जनन अंग → वृषण → जिसमे शुक्राणु बनते हैं।

मादा → मुख्य जनन अंग → अण्डाशय → जिसमे अण्डाणु बनते है ।

2. द्वितीयक जनन अंग (Secondary Reproductive Organ)

नर सहायक अंग → वृषण कोष, अधिवृषण, शुक्रवाहिनिया, शुक्राशय, शिश्न, प्रोस्टेट ग्रंथियाँ, काउपर ग्रंथियाँ आदि |

मादा सहायक अंग → गर्भाशय, अण्डवाहिनियाँ, योनि, भग, स्तन ग्रंथियाँ आदि |

नर जनन तंत्र (Male Reproductive System)

परिभाषा → नर में विभिन्न अंग जैसे वृषण, सहायक नलिकाएँ व ग्रंथियो के समूह को जो नर युग्मक को बनाते है, नर जनन तंत्र कहलाते है|

नर जनन तंत्र के भाग)

मुख्य अंग सहायक अंग सहायक ग्रंथि
वृषण अधिवृषण प्रोस्टेट ग्रंथि
शुक्रवाहक नलिकाएँ काउपर ग्रंथि (बल्बोपुरि -थ्रिल ग्रन्थि )
रस्खलन नलिका
वृषण कोष, , शक
शुक्राशय

मुख्य या प्राथमिक अंग :

वृषण:- पुरुषों मे एक जोडी वृषण (Testes) उदरगुहा से बाहर थैलीनुमा संरचना में पाये जाते है, जिसे वृषण कोष (Scrotum) कहते हैं।

वृषण एक अण्डाकार 4-5 cm लम्बा व 2-3 cm चौडा होता है, यह बाहर से दो झिल्लीयो से घिरा होता है।

आंतरिक झिल्ली वृषण के अन्दर अन्तवर्तित होकर 250-300 कोष्ठो का निर्माण करती है, जिसे वृषण पालियाँ कहते है।

शुक्रजनन नालिका की आंतरिक संरचना

वृषण के अन्दर शुक्रजनन नलिकाएँ होती है इसके भीतर तीन प्रकार की कोशिकाएँ उपस्थित है।

  1. शुक्राणुजनन कोशिकाएँ (spermatogonia, Germ cells)
  2. सरटोली कोशिकाएँ (Sertoli cells)
  3. अन्तराली कोशिका (लीडिग कोशिका)

(a) शुक्राणुजनन कोशिका – यह नर जननिक कोशिकाएं होती है जो अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा शुक्राणु (Sperm) का निर्माण करती है।

(b) सर टोली कोशिकाएँ – यह पिरामिड आकार की कोशिका है जो बनते हुए नर युग्मक कोशिका को पोषण प्रदान करती है।

(C) अन्तराली कोशिका (लीडिंग कोशिका)- वृषण पालि में शुक्रजनन नलिकाओं के चारों ओर अंतराली अवकाश होता है। इसमे कही- कही छोटी-छोटी रक्त वाहिकाएँ व लीडिंग कोशिकाएं होती है इसे ही अंतराली कोशिकाएँ भी कहा जाता है।

ये टेस्टोस्टेरॉन का स्त्रावण करती है। इनकी कुछ कोशिकाएँ प्रतिरक्षात्मक भी होती है।

सहायक या द्वितीयक अंग

वृषण कोष → वृषण जिस थैलीनुमा संरचना में उपस्थित होता है उसे वृषण कोष कहते हैं। वृषण कोष उदर गुहा के बाहर इसलिए उपस्थित होता है जिससे वृषण का तापमान शरीर के तापमान से 2oC से 3oC कम हो ।

अधिवृषण → शुक्रवाहिकाएँ वृषण से निकलकर वृषण के पश्च सतह पर अधिवृषण में खुलती है। अधिवृषण पतली व लम्बी नलिका के अत्यधिक कुंडलन से बनी होती है। इसमें शुक्राणुओं के परिपक्वन का कार्य होता है।

शुक्रवाहक नलिका →अधिवृषण के पश्च भाग से निकलकर यह शुक्रवाहक नलिका उदर तक जाकर मुत्राश्य से ऊपर एक लूप बनाती है।

रस्खलन नलिका → उदर गुहा में शुक्राशय से निकली एक नलिका शुक्रवाहक मे खुलती है। यह दोनों मिलकर एक रस्खलन नलिका कहलाती है।

शिश्न → यह बाह्य जननेंद्रिय है। मूत्रनालिका शिश्न के रास्ते बाहर खुलती है। मूत्र नलिका वीर्य व मूत्र दोनों का परिवहन करती है।

शुक्राश्य → यह एक जोडी मुत्राश्य के पीछे-पीछे स्थित होते हैं तथा ये वीर्य का लगभग 60% बनाते है ।

सहायक ग्रंथियाँ

प्रोस्टेट ग्रंथि → यह एक सघन ग्रन्थि है जो मूत्र नलिका के आधार के चारों ओर होती है। ये वीर्य का लगभग 20-25% भाग बनाती है।

काउपर ग्रंथि → इसका स्त्रवण शिश्न मे स्नेहन का कार्य करता है। यह एक जोड़ी होता है |

टेस्टोस्टेरॉन → यह नर हार्मोन है। जो अन्तराली कोशिका से स्त्रावित होता है। यह नर जनन अंगों के विकास व शुक्राणु परिपक्वन में सहायक है।

स्त्री जनन तंत्र (Female Reproductive System)

स्त्री जनन तंत्र जनन प्रक्रिया के अतिरिक्त भी कई कार्यों का निर्वाहन करती है, जैसे निषेचन, भ्रूण का विकास, . गर्भधारण, दुग्धन आदि। स्त्री जनन तंत्र के भाग है,

प्राथमिक या मुख्य अंग द्वितीयक या सहायक अंग
अण्डाशय (Ovary) अण्ड वाहिनी (Oviduct)
गर्भाशय (Uterus)
गर्भाशय ग्रीवा (Cervix)
योनि (Vagina)

प्राथमिक या मुख्य अंग

अण्डाशय

  • यह मादा का प्राथमिक लैंगिक अंग है, जो मांदा युग्मक (अण्ड) का निर्माण व स्टीरॉइड हार्मोन का उत्पादन करता है।
  • उदर के नीचे दोनों ओर एक- एक अण्डाशय (एक जोडी) होते हैं।
  • प्रत्येक अण्डाशय 2 से 4 cm लम्बी 1.5 cm चौड़ी तथा लगभग 1 cm मोटी बादाम के आकार की संरचना होती है
  • यह श्रोणि भित्ति (Pelvic wall) से लिगामेट द्वारा उदरीय गुहा मे लटके होते है।
  • प्रत्येक अण्डाशय बाहर की ओर एक पतली जनन एपीथीलियम सें स्तरित होता है। व अन्दर अण्डाश्य पीठिका (stroma) होती है।
  • जिसमे दो भाग है- परिधीय (cortex), केन्द्रीय (Medulla) |
  • अण्डाश्य के मेड्यूला भाग में अनेक अण्डाकार गोल रचनाएँ बिखरी होती है, इसे प्राथमिक पुटिकाएँ (primary follicles) या अण्डाश्य पुटिकाएँ कहते हैं।
  • प्राथमिक पुटिकाएँ परिपक्व होकर ग्राफियन फॉलिकल बनाती है।

सहायक अंग

अण्डवाहिनी

यह एक जोड़ी, पेशीय व नलिकाकार होती है। यह अण्डाश्य से गर्भाश्य तक इसकी गुहा पक्ष्माभी एपीथीलियम से स्तरित होती हैं। प्रत्येक अण्डवाहिनी में तीन भाग है।

  • (i) कीपक (Infindibulam)
  • (ii) तुम्बिका (Ampulla)
  • (iii) संकीर्ण पथ (Isthmus)

गर्भाश्य

मादा मे. केवल एक गर्भाश्य पाया जाता है। जिसे बच्चेदानी कहते है। यह 8 cm लम्बी, खोखली, पेशीय होती है। इसमें रक्त की प्रचुर मात्रा में पूर्ति होती है। यह भी श्रोणि भित्ति से लिगामेन्ट द्वारा जुड़ी होती है।

इसका ऊपरी भाग फैलोपियन नलिका मे खुलता है व नीचला संकीर्ण भाग गर्भाशय ग्रीवा (Cervix) कहलाता है।

गर्भाश्य भित्ति के तीन स्तर होते है –

  • (a) पतला झिल्लीमय – परिगर्भाशय
  • (b) मध्य मोटा – गर्भाशय पेशी स्तर मध्य
  • (c) आन्तरिक ग्रन्थिल स्तर – अन्तः स्तर

योनि

गर्भाशय पतली ग्रीवा द्वारा योनि में बदलता है। योनि मैथुन के समय से पुरुष से वीर्य ग्रहण करने का कार्य करती है।

बाह्य जननांग(External Organ)

स्त्री मे वृहत ओष्ठ, लघु ओष्ठ, हाइमन व भगशेफ स्त्री के बाह्य जननांग हैं।

स्थन ग्रंथि

  • स्तन ग्रन्थि सभी मादा स्तनधारियों का अभिलक्षण है। स्तनों मे विभिन्न मात्रा मे वसा व ग्रन्थिल ऊतक होते है।
  • प्रत्येक स्तन में 15-20 मे ग्रन्थिल ऊतक की पालियाँ होती है। प्रत्येक पालि मे कुपिका कोशिकाओं के समूह होते हैं। यह कूपिका दुग्ध स्त्रावण करती है।
  • कूपिका से दुग्ध स्त्रावित होकर स्तन नलिकाओ मे जाता है।
  • प्रत्येक पालि की स्तन नलिकाएँ मिलकर स्तनवाहिनी बनाती है।
  • प्रत्येक स्तनवाहिनी तुम्बिका बनाती है जो दुग्ध वाहिनी से जुड़ा होता है।

युग्मक जनन (Gametogenesis)

जननिक एपिथिलियम की कोशिकाओं द्वारा युग्मक निर्माण की क्रिया को युग्मकजनन (Gametogenesis) कहते हैं।

नर मे युग्मकों के निर्माण की क्रिया को शुक्रजनन (Spermatogenesis) कहते है।

मादा मे युग्मकों के निर्माण की क्रिया को अण्डजनन (Oogenesis) कहते है।

शुक्रजनन (Spermatogenesis)

वृषण में स्थित द्विगुणित जननिक एपिथिलियम कोशिकाओं जिन्हें स्पर्मेटोगोनिया (spermalogonia) कहते हैं, मे अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा अगुणित, कार्यशील शुक्राणुओं का निर्माण शुक्रजनन कहलाता है।

यह प्रक्रिया शुक्रजनन नलिकाओं में होती है।

इस प्रक्रिया को दो भागो मे बाँटा गया है।

  1. शुक्राणु प्रसू या स्पर्मेटिड (spermatids) का निर्माण |
  2. स्पर्मेटिक का शुक्राणुओं (Sperm) मे रुपान्तरण अर्थात शुक्राणुजनन या स्पर्मियोजेनेसिस (Spermiogenesis) |

1. शुक्राणु प्रसू या स्पर्मेटिङ का निर्माण:-

यह क्रिया जनन काल मे प्रारम्भ होती है। इसे निम्नप्रावस्था में बाँटा गया है।

(i) गुणन प्रावस्था (Multiplication Phase):- जननिक एपिथिलियम की कुछ कोशिकाएँ आकार मे बड़ी होकर अन्य कोशिकाओं से भिन्नता प्रकट करती है, इन्हें प्राथमिक जनन कोशिका कहते हैं, इसमें कई बार समसूत्री विभाजन होता है, जिसके फलस्वरूप spermatogonia (शुक्रजनन कोशिका) का निर्माण होता है।

(ii) वृद्धि प्रावस्था (GrowthPhase):- इस प्रावस्था मे स्पर्मेटोगोनिया कोशिका वृद्धि करके प्राथमिक शुक्राणु कोशिका या प्राइमरी स्पर्मेटोसाइट (primary spermatocyte) में बदल जाती है।

(iii) परिपक्वन प्रावस्था (Maturation Phase) → इस प्रावस्था मे प्राइमरी स्पर्मेटोसाइट कोशिका मे अर्धसूत्री विभाजन होता है। अर्धसूत्री विभाजन के पहले चरण में प्राइमरी स्पर्मेटोसाइट से दो अगुणित (n) कोशिकाओं का निर्माण होता है। इसके बाद अर्द्धसूत्री विभाजन का दूसरा चरण सम्पन्न होता होता है। जिससे एक प्राइमरी स्पर्मेटोसाइट से चार स्पर्मेटिड्स का निर्माण होता है।

2. स्पर्मेटिडस का शुक्राणुओं मे रुपान्तरण अर्थात शुक्राणुजनन या स्पर्मियोजेनेसिस (Spermiogenesis)

अचल (non motile), गोलाकार, शुक्राणु प्रसू या स्पर्मेटिड्स का रुपान्तरित होकर सक्रिय या चल शुक्राणु में बदल जाना शुक्राणुजनन कहलाता है।

इस प्रक्रिया में शुक्राणु प्रसु या स्पर्मेटिड्स की गाल्जीकरण शुक्राणु का स्क्रोसोम बनाती है।

शुक्राणु की संरचना

प्रत्येक शुक्राणु पतले व लम्बे होते हैं, जिन्हें केवल सूक्ष्मदर्शी से की सहायता से देखा जा सकता है। इसके निम्नलिखित भाग होते हैं।

1. Head:- यह शुक्राणुओं का शीर्ष भाग होता है जिसमें बड़ा तथा अगुणित केन्द्रक होता है, जिसके आगे एक टोपीनुमा संरचना होती है जिसे एक्रोसोम कहते है। यह निषेचन के समय अण्डाणु के झिल्ली को नष्ट करता है ।

2. Nack:- यह छोटा भाग होता है, इसमे दो तारकेंन्द्र होते हैं:-

(a). अग्रस्थ तारकेन्द्र (b). इरस्त तारकेन्द्र

3. Middle part:- इस भाग को शुक्राणुओं का शक्तिग्रह कहते हैं, इसमे सूक्ष्म नलिकाएं होती है जिसमे माइट्रोकाड्रिया पाये जाते हैं। जो शुक्राणुओं को गति प्रदान करने के लिए ऊर्जा देते हैं।

4. Tail:- यह शुक्राणु का अन्तिम लम्बा भाग है जो जीव द्रत्य की झिल्ली से बना होता है।

अण्डजनन (Oogenesis)

अण्डाशय में स्थित द्विगुणित अण्ड मातृकोशिका या ऊगोनिया से अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा अगुणित परिपक्व मादा युग्मक का निर्माण अण्डजनन कहलाता है। एक स्त्री के अण्डाश्य मे अण्डजनन की प्रक्रिया तब ही प्रारम्भ हो जाती है। जब वह स्त्री अपने माँ के गर्भ में होती है। इसी भ्रूणीय अण्डाश्य मे कई अवस्था होती है।

a. गुणन प्रावस्था (Multiplication Phase) –इस अवस्था में अण्डाशय की जननिक एपिथिलियम की कुछ कोशिकाएँ आकार एवं आकृति में बड़ी हो जाती है। जिसमें कई बार समसूत्री विभाजन होता है जिससे ऊगोनिया (अण्डजननी) कहते है। शिशु जन्म के समय पुटिकाओं की संख्या 20 से 20 लाख होती हैं इसमें से लगभग 400 से 450 प्राथमिक ऊसाइट मे विकसित हो पाती है।

b. वृद्धि प्रावस्था (Growth phase)-यह प्रावस्था लम्बी होती हैं, जो भ्रूणावस्था से प्रारम्भ हो जाती है और जब तक परिपक्वन अवस्था नहीं आती तब तक ये बनी रहती है।इस प्रावस्था मे ऊगोनिया की कोशिकाएँ पोषक तत्वों को ग्रहण करके आकार में बड़ी हो जाती है इनका केन्द्रक भी आकार में बड़ा हो जाता है।

c. परिपक्वन प्रावस्था(Maturation Phase)- वृद्धि प्रावस्था के बाद बनी कोशिका को प्राथमिक ऊसाइट कहते हैं, जिनमें अर्धसूत्री (I) के फलस्वरूप एक छोटी तथा एक बड़ी कोशिका बनती है। छोटी कोशिका को ध्रुवीय केन्द्रक तथा बड़ी कोशिका को द्वितीयक ऊसाइट कहते है । पुनः इन कोशिकाओं मे अर्धसूत्री विभाजन (II) के फलस्वरूप एक बडी अण्ड कोशिका बनती है तथा तीन ध्रुवीय केन्द्रक बनते है जो प्रायः नष्ट हो जाते हैं।

अर्धसूत्री (I) अण्डोत्सर्ग के समय होता है। जबकि अर्धरत्री (II) निषेचन के समय होता है।

अण्डाणु की संरचना

  • अण्डाणु के मध्य मे एक केन्द्रक (n) पाया जाता है।
  • अण्डाणु के चारो ओर एक परत पाई जाती है जिसे जोना – पेल्युसिडा कहते है।
  • बाहर की ओर एक और परत होती है जिसे कोरोना रेडिएटा कहते है।

आर्तव चक्र / रजोधर्म (Menstrual cycle)

  • मादा मे रजोधर्म यौवनारम्भ प्रारम्भ होने पर प्रारम्भ होता है। यह 12 से 13 वर्ष के आयु काल में प्रारम्भ होता है तथा 45 से 50 की आयु तक समाप्त हो जाता है।
  • निषेचन न होने की दशा में गर्भाशय के दीवार तथा अण्डाशय में चक्रीय परिवर्तन होता है, इस चक्र को मासिक चक्र कहते है। यह लगभग 28 दिन का होता है।
  • इसके बाद रुधिर का स्त्राव शुरू हो जाता है, इसी रुधिर के साथ अनिषेचित नष्ट हो चुका अण्डा भी योनि मार्ग से बाहर आता है, इसे मासिक धर्म कहते हैं। रुधिर स्त्राव लगभग 4 से 5 दिनों तक होता है ।
  • किसी बालिका के जीवन काल में प्रथम बार रजोधर्म होने की घंटना को रजोदर्शन (Menarche) कहते है।
  • मादा मे स्थायी रूप से मासिक चक्र को रुकने को सजोनिवृति (Menopause) कहते है।
  • FSH, LH हार्मोन के नियंत्रण से ही यह प्रक्रिया होती है।

निषेचन (Fertilization)

  • नर युग्मक (शुक्राणु) के मादा युग्मक (अण्डाणु ) के साथ संलयन से युग्मनज (2n) बनने की क्रिया को निषेचन कहते है।
  • निषेचन के लिए नर मैथुन क्रिया द्वारा sperm को मादा जनन पथ पर स्खलित करता है। मनुष्य मे आन्तरिक निषेचन होता है।
  • निषेचन की क्रिया फैलोपियन नलिका मे होती है। शुक्राणु गति करते हुए अण्डाणु तक पहुँचते हैं।
  • अण्डाणु के कोशिका द्रव्य में उपस्थित अगुणित केन्द्रक के साथ शुक्राणु मे उपस्थित अगुणित केन्द्रक मिलता है, जिसके फलस्वरूप (2n) गुणित युग्मनज का formation होते हैं।

निषेचन का महत्व

  • निषेचन द्वितीयक अण्डक को अर्धसूत्री विभाजन II पूर्ण करने के लिए प्रेरित करता है।
  • निषेचन द्विगुणित अवस्था (अर्थात मनुष्य मे 2n=46) की पुनर्स्थापना करता है।
  • यह दो जनको के गुणों को मिलाकर आनुवांशिक विविधता पैदा करता है।

प्रारम्भिक विदलन व अन्तर्रोपण(Primary Cleavage And Implantation)

  • निषेचन के बाद युग्मनज अण्डवाहिनी के इस्थमस वाले क्षेत्र से होता हुआ गर्भाशय की ओर गति करता है।
  • अण्डवाहिनी के सीलिया युग्मनज को अण्डवाहिनी मे गर्भाशय की दिशा मे धकेलने का कार्य करते है। इसी गति के दौरान युग्मनज में विदलन होते रहते है।
  • 8 से 16 कोरक खण्डो (Blastomears) वाला भ्रूण तूतक या मोरुला कहलाता है।
  • ट्रोफोब्लास्ट स्तर अब गर्भाशयी भित्ति के आन्तरिक स्तर एण्डोमेट्रियम सें संलग्न हो जाता है तथा अंतर कोशिका समूह अब भ्रूण के रूप मे विभेदित हो जाता है।
  • ब्लास्टोसिस्ट के संलग्न होने पर गर्भाशयी कोशिकाएं तेजी से विभाजित होकर ब्लास्टोसिस्ट को ढक लेती है। इसके फलस्वरूप ब्लास्टोसिस्ट गर्भाशय की एण्डोमेट्रियम मे धँस जाती है या अन्त: स्थापित हो जाती है। यही अन्तारोपण कहलाता है।

प्रसव (Parturition)

मनुष्य में शिशु का जन्म तकनीकी रूप से प्रसव या पारट्यूरिशन कहा जाता है।

इसकी तीन मुख्य अवस्थाएँ होती है

  1. पहली अवस्था में गर्भाशयी ग्रीवा मे फैलाव या प्रसरण शिशु को बाहर आने का मार्ग सुलभ कराता है। एम्निऑन इस समय फट जाती है त एम्नियोटिक द्रव बाहर आने लगता है।
  2. दूसरी अवस्था शिशु जन्म की है। शिशु के स्वतः श्वसन प्रारम्भ कर देने के बाद नाभिनाल काटा जाता है।
  3. तीसरी अवस्था मे अपरा भी गर्भाशय से योनि के रास्ते बाहर निकल आता है।

प्रसव एक जटिल तंत्रिकीय- अंतस्त्रावी क्रियाविधि है।

दुग्ध स्त्रावण या लैक्टेशन

  • संगर्भता के समय स्त्री की स्तन ग्रन्थियो मे अनेक बदलाव होते है तथा स्तन ग्रंथियों में हुए भिन्नन के कारण यह सगर्भता की समाप्ति के आने पर दुग्ध स्त्रावण प्रारम्भ कर देती है।
  • शिशु के जन्म के बाद स्तन ग्रंथियों द्वारा दुग्ध का उत्पादन व स्तावंण ; दुग्ध स्त्रावण कहलाता हैं।
  • मानवीय दूध मे शिशु के पोषण के लिए पोषक पदार्थों का आदर्श संतुलन होता है।
  • दुग्ध स्त्रावण के आरम्भिक कुछ दिनों तक निकलने वाला दुग्ध प्रथम स्तन्य या खीस कहलाता है।

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