राजस्थान के प्रमुख रीति-रिवाज(जन्म और वैवाहिक रस्मे)

राजस्थान के रीति रिवाज-  प्रत्येक देश व जाति की उन्नति व अवनति के लिए कुछ उसके रीति रिवाज व उनकी प्रथाओ पर निर्भर करते है | रीति-रिवाज से तात्पर्य उन कर्तव्य व कार्यो से है जिन्हें विशेष अवसरों पर परम्परा की द्र्रष्टि से आवश्यक समझा जाता है | राजस्थान के रीति रिवाजो में राजस्थानी संस्कृति की झांकी देखने को मिलती है | सैंकड़ो वर्ष पुराने अच्छे-बुरे रीति रिवाज राजस्थान में प्रचलित है  सच तो यह है की भारत की संस्कृति तथा रीति-रिवाजो को काफी हद तक राजस्थान ने ही बनाये रखा है | ग्रामीण अंचलो में अभी भी रीति-रिवाज पारम्परिक उतशाह व जोश के साथ मनाये जाते है |  जबकि शहरी क्षेत्रों में परिवर्तित भौतिक परिस्थितियों ने इन्हें प्रभावित किया है | मुख्तय:  राजस्थान में रीति-रिवाज एवं प्रथाओ को तीन रूपों में माना गया है – जन्म संबंधी रीति-रिवाज , वैवाहिक रस्मे व रीति-रिवाज व गमी की रस्मे |



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राजस्थान के प्रमुख रीति-रिवाज (जन्म और वैवाहिक रस्मे)

जन्म से सबंधित रीति-रिवाज – जन्म से संबंधित रीति-रिवाजो में मुख्तय: हिन्दू विधि से मनाये जाने वाले संस्कार निम्न है –

गर्भधान – नव विवाहित स्त्री जब पहली बार गर्भवती होती है ट उसे परिवार के लिए सुभ माना जाता है | उस अवसर पर उत्सव का आयोजन किया जाता है तथा स्त्रिया मांगलिक गीत  गाती है | इस अवसर पर गाये जाने वाले गीतों में गर्भवती के शरीर में होने वाले ( नौ महीनों ) परिवर्तनों , उसके   प्रत्येक मास में होने वाली इच्छाओ का बड़ा रोचक वर्णन होता है |


आठवां पूजन – गर्भवती के गर्भ केजब सात माह हो जाते है तो आठवे मास में एक बड़ा उत्सव मनाया जाता है | जिसे आठवां पूजन महोत्सव कहते है | इस अवसर पर प्रतिभोज का आयोजन किया जाता है तथा देवताओ की मनौती के लिए इष्ठ देवी देवताओ का मांगलिक पूजन किया जाता है |

जन्म- बच्चे के जन्म पर जन्म-घुट्टी परिवार की किसी बढ़ी-बूढी स्त्री से दिलाते है | यदि शिशु लड़का होता है तो घर की बड़ी औरत काँसे की थाली बजाती है | ब्राह्मण से जन्म का ठीक समय मालूम करके उसके सुभ लक्षणों को ज्ञात किया जाता है  लकड़ा होने पर उत्सव मनाया जाता है | तथा मिठाई बांटी जाती है | मांगलिक गीत गाये जाते है | पुत्र जन्मोत्सव को अत्यंत हर्ष एवं उल्लास के साथ मनाया जाता है |बच्चे के जन्म होने के काफी दिनों तक गीत गाये जाते है |

नामकरण – बच्चे के जन्म के 11 वें या 101 वें दिन या दुसरे वर्ष के शुरू में जिस दिन जन्म हो , नाम रखते है | नामकरण संस्कार ज्यादातर पंडित द्वारा के करवाए जाने के ही रिवाज है  इस अवसर पर बच्चे के प्रति शुभकामनाए दी जाती है तथा पारिवारिक इष्ट देवी-देवताओ का शुभ स्मरण किया जाता है

पनघट पूजन – बच्चे के जन्म एक कुछ दिनों पश्चात पनघट पूजन या कुंवा पूजन किया जाता है | इस अवसर पर घर-परिवार व मोहल्ले की औरते एकत्रिक होकर देवी देवताओ के गीत गाती हुई जच्चा को पनघट की और पूजा करवाने के लिए ले जाती है | इस प्रथा को जलवा पूजन कहते है |

जडूला – जब बालक दो या तीन वर्ष का हो जाता है तो उसके बाल उतराए जाते है | जिसे मुंडन संस्कार के नाम से जाना जाता है | इन बालो को परिवार के इन बालो को कुलदेवता या कुलदेवी के स्थान पर ले जाकर उतराए जाने का रिवाज है | राजस्थान के कुछ स्थानों पर कर्ण-छेदन भी किया जाता है



गोद लेना – राजस्थान में गोद लेने की प्रथा भी प्रचलित है | जब किसी दंपित के बच्चा पैदा नहीं होता है तो तो वह अपने परिवार के किसी लडके को या अपने की रक्त संबध के निकटतम बालक को अपना लेते है | जिसे गोद लेने की रस्म माना जाता है | गोद लेने का मुख्य उद्देश्य हक़ पेट के बेटे (स्वजात) के बराबर होता है |

वैवाहिक रस्में व रीति-रिवाज – राजस्थान में विवाह के अवसर पर रीति-रिवाजो तथा आडम्बरो की धूम-धाम होती है | विवाह के अवसर पर अनेक नेगचार संपन्न किये जाते है  ज्यादातर नेगचार धार्मिक और सामाजिक होते है | वैवाहिक रस्में मुख्तय: निम्न है –

सगाई – राजस्थान में आदिवासियों , जनजातियो को छोड़कर सामान्यत: युवाअवस्था में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये जाते है | ग्रामीण अंचल में कम आयु में शादी कर डालते है | लड़का व लडकी के परिज किसी भाट , पुरोहित , चारण अथवा किसी और को बीच में रखकर सगाई या मंगनी करते है |  इस प्रकार किसी लडकी के लिए लड़का रोकने की रस्म को सगाई के नाम से जाना जाता है | जब सगाई तय हो जाती है तो कन्या पक्ष अपनी सामर्थ्य के    अनुसार लडके के घर रुपया या नारियल शगुन के रूप में भेजता है |

टीका- शुभ घडी और मुहूर्त पर वर का पिता अपने परिजनों , सजातियो , पड़ोसियों को आमंत्रित करता है | इस अवसर पर वधू पक्ष के लोग , ववर के घर जाकर वर को चौकी पर बिठाकर वर का तिलक करते है | तथा अपनी सामर्थ्य के अनुसार नगदी , मिठाइयाँ और वस्त्र आभूषण देते है |

लग्न पत्रिका – वर वधु पक्ष द्वारा तय शुभ मुहूर्त पर कन्या पक्ष की और से रंग बिरंगे कागज में पंडित द्वारा लिखवाकर लग्न पत्रिका भिजवाई जात है , जिसमे विवाह के शुभ मुहूर्त का उल्लेख होता है तथा श्री फल होता है     एवं तदानुसार ही वार पक्ष वाले बरात बनाकर वधु के घर ब्याहने जाते है |

कुंकुम  पत्रिका – विवाह के लगभग एक सप्ताह या कुछ दिन पूर्व वर और कन्या के मात पिता अपने सगे संबंधियों, मित्रो को विवाह के अवसर पर पधारने के लिए केसर और कम कुम से सुसज्जित निमंत्रण भेजते है , जिसमे वैवाहिक कार्यक्रम का तिथि वार उल्लेख होता है | सर्वप्रथम कुंकुम पत्रिका गणेश जी को न्योता देने हेतु दी जाती है |

बान बैठना – लग्न पत्र पहुचने के बाद दोनों अपने-अपने घरों में व-वधु को चौकी पर बिठाकर गेंहू का आटा व घी और हल्दी घोलकर बदन पर मलते है | जिसको पीठी करना कहते है | सुहागिन स्त्रियाँ इस दिन मांगलिक गीत गाती है | इस शुभ क्रिया को बाण बिठाना कहते है | बान बैठने के पश्चात वर या वधु को पैसे देते है जिसे बान देना कहते है | भाई बंधू व इष्ट मित्र वर या वधु को अपने घर पर उत्त्मोतम भोजन के लिए आमंत्रित करते है और वापिस उसे ठाट भाट से उसके घर पंहुचा देते है | जिसे बिनौरा ( बिनौरी ) भी कहते है |

विनायक पूजन – विवाह के एक या दो दिन पूर्व वर के घर गणेश जी का पूजन किया जाता है | तथा पड़ोसियों को भोजन पर आमंत्रित किया जाता है |

बरी पडला –  वर के घर से वधु के घर को कपड़ा-आभूषण आदि तैयार करके ले जाने को बरी या मिष्ठान मेवा या आदि ले जाने को पडला कहते है | यह बरी व पडला विवाह तिथि को बारात के साथ ले जाया जाता है | बरी में लाये गए आभूषणो को वधु विवाह के समय धारण करती है |



कांकन दोरडा – विवाह के दो दिन पूर्व तेल पूजन कर वर के दाहिने हाथ में कांकन डोरडा बाँध देते है | यह मोली को बाँटकर बनाया जाता है | यह सूखे फल में छेद कर यह मोली में पिरोया जाकर एक मोरफली और माख और लोहे के छल्ले मोली की डोरी में बाँध दिए जाते है | इस समय के कांकन डोरडा वधु के लिए भेजा जाता है जिसको वधु के हाथ में बाँधा जाता है |

बिन्दोरी – विवाह के पहले दिन बिन्दोरी निकाली जाती है | उसे गाजे बाजे के साथ गाँव में घुमाया जाता है | वर के साथ इसमें वर के परिचित व मित्र इसमें शामिल होते है | वर मंदिर जाकर देवताओ की पूजा करते है | उसके बाद उसको किसी परिचित या मित्र के घर ठहराया जाता है | इसके बाद वर-वधु को लेकर वापिस अपने घर लौट जाता है |    थाल में दीपक सजाकर वर-वधु की पूजा की जाती है |

मोड़-बांधना – विवाह के दिन सुहागिन स्त्रियाँ वर को नहला धुलाकर वस्त्रो से सुसज्जित कर कुलदेव के समक्ष चौकी पर बिठाकर पूजन करवाती है तथा वर के सिर पर सुन्दर पगड़ी पर मुकुट बाँधा जाता है | इसी समय वर को उसकी माँ या घर की बड़ी-बूढी औरत अपना दूध पिलाती है की तूने मेरा दूध पिया है , अब तू पराये घर जाकर और वह से वधु को लाकर मुझे भूल मत जाना |

बारात – पूर्व निर्धारित तिथि को सज-धज कर वर पक्ष के लोग बारात बनाकर वधु पक्ष के घर जाते है | दूल्हा घोड़े पर सवार होता है | बारात में हाथी,घोड़े , बैण्ड , रथ , ऊंट आदि जाते है जो सजे हुए होते है | रोशनी व आतिशबाजी का आयोजन होता है |

सामेला – जब बारात दुहलन के गाँव कहलाती है तो वर पक्ष की और से नाई या ब्राहमण आगे जाकर बारात के आने की सुचना वधु पक्ष को देता है | सुचितकर्ता को फलस्वरूप कन्या पक्ष की हैसियत के अनुसार नारियल व दक्षिणा देते है | तत्पश्चात कन्या पक्ष वाले बंधुओ व संबंधियों सहित बारात की आगवानी करते है जिसे सामेला या ठुकाव कहते है | वहा से बरी पडला में से आवश्यक सामान जो बाराती साथ लाते है वधु के घर पहुचा देते है |



तोरण – कन्या ग्रह पर जब वर प्रथम बार पहुचता है तो घर के दरवाजे पर लगे तोरण को घोड़ी पर चढ़ा हुआ की छड़ी या तलवार से छुता है | तोरण मांगलिक चिन्न होता है | तोरण विवाह की आवश्यक रस्म होती है |

वधु के तेल चडाना – वधु के तेल का उबटने लगाने का रिवाज बारात के घर आने पर भी होता है | तेल चडाने की रस्म से आधा विवाह मान लिया जाता है | तेल चड़ाए जाने के पश्चात यदि महूर्त पर नहीं पहुचे तो इसे वक्त में बड़ी कठिनाई पैदा हो जाती है और विवशता की स्थित में वधु पक्ष को उसका विवाह स्वजातीय अन्य युवक से करना पड जाता है | राजस्थान में इस अवसर पर  प्रचलित कहावत है – तिरिया तेल हमीर हठ चढ़े न दूजी बार | इसलिए वर के आने के बाद ही तेल चढाया जाता है |

फेरे ( सप्तपदी ) – विवाह में यह प्रथा सबसे महत्वपूर्ण है | इस व्यवस्था द्वारा दो अनजान युवक-युवती आजन्म जीवन सूत्र के बंधकर जीवन-साथी बन जाते है | वर पानी वधु का हाथ अपने हाथ में लेकर आग्नि के समक्ष सात प्रदक्षिणा कर जीवन पर्यन्त साथ निभाने की प्रतिज्ञा करता है | फेरे पड़ने के बाद वधु पति -पत्नि का रूप धारण कर गृहस्त बन जाते है |

कन्यादान – कन्या दान के दो रूप होते है – विवाह में वर को कन्या देने की रस्म  तथा इस अवसर पर कन्या को दिया जाने वाला दान , फेरो की रस्म की समाप्ति पर कन्या के माता पिता वेद-मन्त्रादी से कन्या दान कर संकल्प करते है |वर कन्या की जिम्मेदारी निभाने का वचन देता है तथा दो-तीन घण्टे तक इस रस्म के साथ विवाह की मुख्य क्रियाए समाप्त हो जाती है |

पहरावणी – विवाह के पश्चात दुसरे दिन बारात विधा की जाती है | विधा में वर सहित प्रत्येक बाराती को यथाशक्ति नकद राशि दी जाती है  जिसे पहरावणी जा रंगबरी की रस्म कहते है | आजकल बारात उसी दिन विधा होने लगी है |

कुलदेवता की पूजा – वर-वधु के विवाह बंधन में बंध जाने के उपरांत सर्वप्रथम वर पक्ष के कुलदेवता की पूजा की जाती है तथा बारात वापस लौटने से हार रुकाई की रस्म भी अदा की जाती है | वर-वधु की आरती उतारी जाती है | तत्पश्चात वर अपनी बहिन को दक्षिणा के रूप में कुछ देकर ही घर में प्रवेश करता है | इस अवसर पर मांगलिक गीत गाये जाते है | कुलदेवता की पूजा करने के बाद पति-पत्नी के कांकन-डोरे खोले जाते है | इन क्रियाओ के बाद कन्या का भाई आदि कन्या को विदा करा कर पुन: पीहर ले जाते है

गौना ( आणा , मुकलावा ) – जब वधु व्यस्क होती है तो यह रस्म विवाह के अवसर पर ही संपन्न करा दी जाती है | इस रस्म के साथ ही पति-पत्नी के रूप में उनका सामाजिक जीवन प्रारंभ हो जाता है |



कोथला – पुत्री के प्रथम जापा होने पर जवाई एवं उनके परिवार वालो को बुलाकर भेट देना |

Major customs of Rajasthan (Birth and Matrimonial Rituals)

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