साँची
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विवरण | साँची स्तूप बौद्ध स्मारक हैं, जो कि तीसरी शताब्दी ई.पू. से बारहवीं शताब्दी के बीच के हैं। |
राज्य | मध्य प्रदेश |
ज़िला | रायसेन |
भौगोलिक स्थिति | उत्तर- 23° 28′ 50.36″; पूर्व -77° 44′ 10.68″ |
मार्ग स्थिति | भोपाल से 46 किमी पूर्वोत्तर में, तथाबेसनगर और विदिशा से 10 किमी की दूरी पर मध्य प्रदेश के मध्य भाग में स्थित है। |
कब जाएँ | अक्तूबर से मार्च |
कैसे पहुँचें | हवाई जहाज़, रेल, बस आदि से पहुँचा जा सकता है। |
राजा भोज विमानतल, भोपाल | |
भोपाल जंक्शन, हबीबगंज | |
ऑटो रिक्शा, टैक्सी, मिनी बस | |
क्या देखें | स्तूप, अशोक स्तंभ, बौद्ध विहार,पुरातत्व संग्रहालय |
कहाँ ठहरें | होटल, धर्मशाला, अतिथि ग्रह |
क्या ख़रीदें | बुद्ध की दस्तकारी मूर्तियाँ, संगमरमर पत्थर, लकड़ी आदि से बने सांची स्तूप |
एस.टी.डी. कोड | 7482 |
ए.टी.एम | लगभग सभी |
गूगल मानचित्र | |
भाषा | हिन्दी और अंग्रेज़ी |
अन्य जानकारी | साँची से मिलने वाले कई अभिलेखों में इस स्थान को काकनादबोट नाम से अभिहित किया गया है। |
बाहरी कड़ियाँ | साँची |
अद्यतन |
12:20, 1 जनवरी 2013 (IST)
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साँची (Sanchi) भारत के मध्य प्रदेश राज्य के रायसेन ज़िले में स्थित एक छोटा सा गांव है। यह भोपाल से 46 किमी पूर्वोत्तर में तथा बेसनगर और विदिशा से 10 किमी की दूरी पर मध्य-प्रदेश के मध्य भाग में है। यहाँ बौद्ध स्मारक हैं, जो कि तीसरी शताब्दी ई.पू. से बारहवीं शताब्दी के बीच के हैं। यह रायसेन ज़िले की एक नगर पंचायत है। यहीं यह स्तूप स्थित है। इस स्तूप को घेरे हुए कई तोरण भी हैं। यह प्रेम, शांति, विश्वास और साहस का प्रतीक है। साँची का स्तूप, सम्राट अशोक महान ने तीसरी शती, ई.पू. में बनवाया था। इसका केन्द्र, एक सामान्य अर्द्धगोलाकार, ईंट निर्मित ढांचा था, जो कि बुद्ध के कुछ अवशेषों पर बना था। इसके शिखर पर एक छत्र था, जो कि स्मारक को दिये गये सम्मान का प्रतीक था।
इतिहास
यह प्रसिद्ध स्थान, जहां अशोक द्वारा निर्मित एक महान स्तूप, जिनके भव्य तोरणद्वार तथा उन पर की गई जगत प्रसिद्ध मूर्तिकारी भारत की प्राचीन वास्तुकला तथा मूर्तिकला के सर्वोत्तम उदाहरणों में हैं। बौद्ध की प्रसिद्ध ऐश्वर्यशालिनी नगरी विदिशा (भीलसा) के निकट स्थित है। जान पड़ता है कि बौद्धकाल में साँची, महानगरी विदिशा की उपनगरी तथा विहार-स्थली थी। सर जोन मार्शल के मत में कालिदास ने नीचगिरि नाम से जिस स्थान का वर्णन मेघदूत में विदिशा के निकट किया है, वह साँची की पहाड़ी ही है। कहा जाता है कि अशोक ने अपनी प्रिय पत्नी देवी के कहने पर ही साँची में यह सुंदर स्तूप बनवाया था। देवी, विदिशा के एक श्रेष्ठी की पुत्री थी और अशोक ने उस समय उससे विवाह किया था जब वह अपने पिता के राज्यकाल में विदिशा का कुमारामात्य था।
अभिलेख
साँची से मिलने वाले कई अभिलेखों में इस स्थान को ‘काकनादबोट’ नाम से अभिहित किया गया है। इनमें से प्रमुख 131 गुप्त संवत (450-51) ई. का है जोकुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल से संबंधित है। इसमें बौद्ध उपासक सनसिद्ध की पत्नी उपासिका हरिस्वामिनी द्वारा काकनादबोट में स्थित आर्यसंघ के नाम कुछ धन के दान में दिए जाने का उल्लेख है। एक अन्य लेख एक स्तंभ पर उत्कीर्ण है जिसका संबंध गोसुरसिंहबल के पुत्र विहारस्वामिन से है। यह भी गुप्तकालीन है।
स्थापना
सांची की स्थापना बौद्ध धर्म व उसकी शिक्षा के प्रचार-प्रसार में मौर्य काल के महान राजा अशोक का सबसे बडा योगदान रहा। बुद्ध का संदेश दुनिया तक पहुंचाने के लिए उन्होंने एक सुनियोजित योजना के तहत कार्य आरंभ किया। सर्वप्रथम उन्होंने बौद्ध धर्म को राजकीय प्रश्रय दिया। उन्होंने पुराने स्तूपों को खुदवा कर उनसे मिले अवशेषों के 84 हज़ार भाग कर अपने राज्य सहित निकटवर्ती देशों में भेजकर बडी संख्या में स्तूपों का निर्माण करवाया। इन स्तूपों को स्थायी संरचनाओं में बदला ताकि ये लंबे समय तक बने रह सकें। सम्राट अशोक ने भारत में जिन स्थानों पर बौद्ध स्मारकों का निर्माण कराया उनमें सांची भी एक था जिसे प्राचीन नाम कंकेनवा, ककान्या आदि से जाना जाता है। तब यह बौद्ध शिक्षा के प्रमुख केंद्र के रूप में विकसित हो चुका था। ह्वेन सांग के यात्रा वृत्तांत में बुद्ध के बोध गया से सांची जाने का उल्लेख नहीं मिलता है। संभव है सांची की उज्जयिनी से निकटता और पूर्व से पश्चिम व उत्तर से दक्षिण जाने वाले यात्रा मार्ग पर होना भी इसकी स्थापना की वजहों में से रहा हो।
जीर्णोद्धार
सांची की कीर्ति राजपूत काल तक बनी रही किंतु औरंगजेब के काल में बौद्ध धर्म का केंद्र सांची गुमनामी में खो गया। उसके बाद यहां चारों ओर घनी झाडियां व पेड़ उग आए।19वीं सदी में कर्नल टेलर यहां आए तो उन्हें सांची के स्तूप बुरी हालत में मिले। उन्होंने उनको खुदवाया और व्यवस्थित किया। कुछ इतिहासकार मानते हैं उन्होंने इसके अंदर धन संपदा के अंदेशे में खुदाई की जिससे इसकी संरचना को काफ़ी नुकसान हुआ। बाद में पुराविद मार्शल ने इनका जीर्णोद्धार करवाया। चारों ओर घनी झाड़ियों के मध्य सांची के सारे निर्माण का पता लगाना और उनका जीर्णोद्धार कराके मूल आकार देना बेहद कठिन था, किंतु उन्होंने बखूबी से इसकी पुरानी कीर्ति को कुछ हद तक लौटाने में मदद की।
विशेषता
यह स्तूप एक ऊंची पहाड़ी पर निर्मित है। इसके चारों ओर सुंदर परिक्रमापथ है। बालु-प्रस्तर के बने चार तोरण स्तूप के चतुर्दिक् स्थित हैं जिन के लंबे-लंबे पट्टकों पर बुद्ध के जीवन से संबंधित, विशेषत: जातकों में वर्णित कथाओं का मूर्तिकारी के रूप में अद्भुत अंकन किया गया है। इस मूर्तिकारी में प्राचीन भारतीय जीवन के सभी रूपों का दिग्दर्शन किया गया है। मनुष्यों के अतिरिक्त पशु-पक्षी तथा पेड़-पौधों के जीवंत चित्र इस कला की मुख्य विशेषता हैं। सरलता, सामान्य, और सौंदर्य की उद्भभावना ही साँची की मूर्तिकला की प्रेरणात्मक शक्ति है।
सांची के स्तूप
सांची के स्तूप दूर से देखने में भले मामूली अर्द्धगोलाकार संरचनाएं लगती हैं लेकिन इसकी भव्यता, विशिष्टता व बारीकियों का पता सांची आकर देखने पर ही लगता है। इसीलिए देश-दुनिया से बडी संख्या में बौद्ध मतावलंबी, पर्यटक, शोधार्थी, अध्येता इस बेमिसाल संरचना को देखने चले आते हैं। सांची के स्तूपों का निर्माण कई कालखंडों में हुआ जिसे ईसा पूर्व तीसरी सदी से बारहवीं सदी के मध्य में माना गया है। ईसा पूर्व 483 में जब गौतम बुद्ध ने देह त्याग किया तो उनके शरीर के अवशेषों पर अधिकार के लिए उनके अनुयायी राजा आपस में लडने-झगडने लगे। अंत में एक बौद्ध संत ने समझा-बुझाकर उनके शरीर के अवशेषों के हिस्सों को उनमें वितरित कर समाधान किया। इन्हें लेकर आरंभ में आठ स्तूपों का निर्माण हुआ और इस प्रकार गौतम बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार इन स्तूपों को प्रतीक मानकर होने लगा।
बौद्ध वास्तु शिल्पकला
बौद्धधर्म में ईश्वरवादी सिद्धांत के स्थान पर शिक्षाओं का महत्व है। इन संरचनाओं में मंदिर से परे स्तूप एक नया विचार था। ‘स्तूप’ शब्द संस्कृत वपाली से निकला माना जाता है जिसका अर्थ होता है ‘ढेर’। आरंभ में केंद्रीय भाग में तथागत के अवशेष रख उसके ऊपर मिट्टी पत्थर डालकर इनको गोलाकार आकार दिया गया। इनमें बाहर से ईटों व पत्थरों की ऐसी चिनाई की गई ताकि खुले में इन स्तूपों पर मौसम का कोई प्रभाव न हो सके। स्तूपों में मंदिर की भांति कोई गर्भ गृह नहीं होता। अशोक द्वारा सांची में बनाया गया स्तूप इससे पहले के स्तूपों से विशिष्ट था। बौद्ध कला की सर्वोत्तम कृतियां सांची में बौद्ध वास्तु शिल्प की बेहतरीन कृतियां हैं जिनमें ‘स्तूप’, ‘तोरण’, ‘स्तंभ’ शामिल हैं। इनमें स्तूप संख्या 1 सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया था जिसमें महात्मा बुद्ध के अवशेष रखे गए।
क़रीब में यहां पर दो अन्य छोटे स्तूप भी हैं जिनमें उनके दो शुरुआती शिष्यों के अवशेष रखे गए हैं। पहले स्तूप की ‘वेदिका’ में जाने के लिए चारों दिशाओं में तोरण द्वार बन हैं। पूरे स्तूप के बाहर जहां पहले कठोर लकडी हुआ करती थी आज पत्थरों की रेलिंग है। अंदर वेदिका है व कुछ ऊंचाई तक जाने के लिए ‘प्रदक्षिणा पथ’ है। स्तूप के गुंबद पर पत्थरों की वर्गाकार रेलिंग बनी है व शिखर पर ‘त्रिस्तरीय छत्र’ है। स्तूप की वेदिका में प्रवेश के लिए चार दिशाओं में चार तोरण हैं। पत्थर से बने तोरणों में महात्मा बुद्ध के जीवन की झांकी व जातक प्रसंगों को उकेरा गया हैं। यह कार्य इतनी बारीकी से किया गया है कि मानो कारीगरों ने कलम कूंची से उनको गढ़ा हो। इस स्तूप के दक्षिणी तोरण के सामने अशोक स्तंभस्थापित है। इसका पत्थर आस-पास कहीं नहीं मिलता है। माना जाता है कि 50 टन वजनी इस स्तंभ को सैकडों कोस दूर चुनार से यहां लाकर स्थापित किया गया। यहां पर एक मंदिर के अवशेष है जिसे गुप्तकाल में निर्मित माना गया है।
बौद्ध मठ
सांची के स्तूपों के समीप एक बौद्ध मठ के अवशेष हैं जहां बौद्ध भिक्षुओं के आवास थे। यही पर पत्थर का वह विशाल कटोरा है जिससे भिक्षुओं में अन्न बांटा जाता था। यहां पर मौर्य, शुंग,कुषाण, सातवाहन व गुप्तकालीन अवशेषों सहित छोटी-बडी कुल चार दर्जन संरचनाएं हैं। शुंग काल में सांची में अशोक द्वारा निर्मित स्तूप को विस्तार दिया गया जिससे इसका व्यास 70 फीट बढकर 120 फीट व ऊंचाई 54 फीट हो गई। इसके अलावा यहां पर अन्य स्तूपों का निर्माण कराया। सांची में इन स्तूपों का जीर्णोद्धार लंबे समय तक चला जिसमें इसे अद्वितीय बनाने के लिए कल्पना शक्ति का इस्तेमाल किया गया। इसके बाद शुंग व कुषाण नरेशों ने अपने काल में यहां पर अन्य स्तूप निर्मित करवाए। मौर्य, शुंग, कुषाण सातवाहन व गुप्तकाल तक बौद्ध धर्म फलता फूलता रहा किन्तु इनके पतन के उपरांत राजकीय कृपादृष्टि समाप्त होने से बौद्ध धर्म का अवसान होने लगा। लेकिन बाद के शासकों ने बौद्ध स्मारकों व मंदिरों को यथावत रहने दिया।
यूनेस्को की सूची में शामिल
कैसे पहुँचें
साँची के लिए हवाई जहाज़, रेल, बस आदि के द्वारा आराम से प्रस्थान किया जा सकता है।
- हवाई जहाज़ द्वारा
निटकतम हवाई अड्डा ‘राजा भोज विमानतल’, भोपाल में हैं जिसकी फ़्लाइट दिल्ली, मुम्बई जैसे शहरों से रोज़ हैं।
- रेल द्वारा
निटकतम रेलवे स्टेशन भोपाल जंक्शन, हबीबगंज में हैं जो देश के सभी बड़े शहरों से जुड़ा हुआ है।
- बस द्वारा
बस द्वारा भी आसानी से जा सकते हैं। साँची, भोपाल से 46 किमी, विदिशा से 10 किमी और इंदौर से 232 किमी की दूरी पर है।
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